Last modified on 10 अगस्त 2010, at 14:17

वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ ४

जो हलचल लोकापवाद आधार से।
है उत्पन्न हुई, दुरन्त है हो, रही॥
उसका उन्मूलन प्रधान-कर्तव्य है।
किन्तु आप को दमन-नीति प्रिय है नहीं॥46॥

यद्यपि इतनी राजशक्ति है बलवती।
कर देगी उसका विनाश वह शीघ्र तम॥
पर यह लोकाराधन-व्रत-प्रतिकूल है।
अत: इष्ट है शान्ति से शमन लोक भ्रम॥47॥

सामनीति का मैं विरोध कैसे करूँ।
राजनीति को वह करती है गौरवित॥
लोकाराधन ही प्रधान नृप-धर्म है।
किन्तु आपका व्रत बिलोक मैं हूँ चकित॥48॥

त्याग आपका है उदात्त धृति धन्य है।
लोकोत्तर है आपकी सहनशीलता॥
है अपूर्व आदर्श लोकहित का जनक।
है महान भवदीय नीति-मर्मज्ञता॥49॥

आप पुरुष हैं नृप व्रत पालन निरत हैं।
पर होवेगी क्या पति प्राणा की दशा॥
आह! क्यों सहेगी वह कोमल हृदय पर।
आपके विरह की लगती निर्मम-कशा॥50॥

जो हो पर पथ आपका अतुलनीय है।
लोकाराधन की उदार-तम-नीति है॥
आत्मत्याग का बड़ा उच्च उपयोग है।
प्रजा-पुंज की उसमें भरी प्रतीति है॥51॥

आर्य-जाति की यह चिरकालिक है प्रथा।
गर्भवती प्रिय-पत्नी को प्राय: नृपति॥
कुलपति पावन-आश्रम में हैं भेजते।
हो जिससे सब-मंगल, शिशु हो शुध्दमति॥52॥

है पुनीत-आश्रम वाल्मीकि-महर्षि का।
पतित-पावनी सुरसरिता के कूल पर॥
वास योग्य मिथिलेश सुता के है वही।
सब प्रकार वह है प्रशान्त है श्रेष्ठतर॥53॥

वे कुलपति हैं सदाचार-सर्वस्व हैं।
वहाँ बालिका-विद्यालय भी है विशद॥
जिसमें सुरपुर जैसी हैं बहु-देवियाँ।
जिनका शिक्षण शारदा सदृश है वरद॥54॥

वहाँ ज्ञान के सब साधन उपलब्ध हैं।
सब विषयों के बहु विद्यालय हैं बने॥
दश-सहस्र वर-बटु विलसित वे हैं, वहाँ-
शन्ति वितान प्रकृति देवी के हैं तने॥55॥

अन्यस्थल में जनक-सुता का भेजना।
सम्भव है बन जाए भय की कल्पना॥
आपकी महत्ता को समझेंगे न सब।
शंका है, बढ़ जाए जनता-जल्पना॥56॥

गर्भवती हैं जनक-नन्दिनी इसलिए।
उनका कुलपति के आश्रम में भेजना॥
सकल-प्रपंचों पचड़ों से होगा रहित।
कही जाएगी प्रथित-प्रथा परिपालना॥57॥

जैसी इच्छा आपकी विदित हुई है।
वाल्मीकाश्रम वैसा पुण्य-स्थान है॥
अत: वहाँ ही विदेहजा को भेजिए।
वह है शान्त, सुरक्षित, सुकृति-निधन है॥58॥

किन्तु आपसे यह विशेष अनुरोध है।
सब बातें कान्ता को बतला दीजिए॥
स्वयं कहेगी वह पतिप्राणा आप से।
लोकाराधन में विलंब मत कीजिए॥59॥

सती-शिरोमणि पति-परायणा पूत-धी।
वह देवी है दिव्य-भूतियों से भरी॥
है उदारतामयी सुचरिता सद्व्रता।
जनक-सुता है परम-पुनीता सुरसरी॥60॥

जो हित-साधन होता हो पति-देव का।
पिसे न जनता, जो न तिरस्कृत हों कृती॥
तो संसृति में है वह संकट कौन सा।
जिसे नहीं सह सकती है ललना सती॥61॥

प्रियतम के अनुराग-राग में रँग गए।
रहती जिसके मंजुल-मुख की लालिमा॥
सिता-समुज्ज्वल उसकी महती कीर्ति में।
वह देखेगी कैसे लगती कालिमा॥62॥

अवलोकेगी अनुत्फुल्ल वह क्यों उसे।
जिस मुख को विकसित विलोकती थी सदा॥
देखेगी वह क्यों पति-जीवन का असुख।
जो उत्सर्गी-कृत-जीवन थी सर्वदा॥63॥

दोहा

सुन बातें गुरुदेव की, सुखित हुए श्रीराम।
आज्ञा मानी, ली विदा, सविनय किया प्रणाम॥64॥