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वो टूटे स्वप्न पर नव स्वप्न का पानी चढ़ाता है / राजेन्द्र वर्मा

वो टूटे स्वप्न पर नव स्वप्न का पानी चढ़ाता है,
वो रोटी को नहीं, रोटी के सपनों को जुटाता है।

धरा की माँग सूनी कर गगन सिर पर उठाता है,
विरद अपना स्वयं रचकर वह तन्मयता से गाता है।

सफलता की तरंगों में करे पुरुषार्थ की बातें,
विफलता में विपक्षी को खरी-खोटी सुनाता है।

मनाये धूम से होली-दिवाली, ईद-क्रिसमस को,
मगर इंसान अपनी सोयी आत्मा कब जगाता है?

समय आया है ये कैसा कि सब कुछ हो गया पैसा,
मगर पैसा अभागा भी नहीं कुछ काम आता है।

बिछुड़ता जा रहा है आदमी अपनों से कुछ ऐसे,
भरे बाज़ार अपनी लाश कन्धों पर उठाता है।

चराचर के लिए विष-पान करना आ गया जिसको,
वही कर्तृत्व करता है, वही अमरत्व पाता है।