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समय की भी तुला पर / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

पुतलियों में बंद
नीली चिठ्ठियों के होंठ
सहसा खुल गये;
गोल-घूमी राह पर हम मिल गये!
दस्तकों का सिलसिला
टूटा किसी आवाज़ से
तड़पती कड़ियाँ बजीं
दिल के झनकते साज़ से
हथेली पर उठे
स्वागत के अपरिचित फूल
माथे चढ़ गये;
जिधर फ़व्वारा,उधर हम बढ़ गये!
रिमझिमी सतरंग छतरी-
लिये,बिजली घेर कर-
नाचती रंगीन शीशों
के बटोर ढेर पर,
चार बाँहों बीच
कितने अन्तराल अथाह
खुद ही भर गये;
सटे दुहरे सूर्य-से हम जुड़ गये!
देखते ही देखते
सड़कें हुई नदियाँ
तैरते ही तैरते-
लौटीं कई सदियाँ;
बन्द पलकों कसे
सागर-पाखियों के पंख
भीतर खुल गये;
हम समय की भी तुला पर तुल गये!