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सलीबों पर टँगे दिन / राजेन्द्र गौतम

अब सलीबों पर टँगे हैं
फूल-से महके हुए दिन ।

भीड़ के पहियों तले
कुचली हुई पाँखें
धुन्ध में पथ खोजती
कुहरा गई आँखें
समय की हथकड़ी पहने
गन्ध-से बहके हुए दिन ।

सींखचों के पार बन्दी
सिसकियाँ सोईं
देह टूटी साँझ वन में
भटक कर खोईं
ढो रहे निवास-यात्रा
धूप-से दहके हुए दिन ।

परिचयों की चूड़ियाँ
कल टूटकर बिखरीं
शिलाओं की पर्त अब
हर साँस पर उभरी
उड़ गए अनजान नभ से
विहग-से चहके हुए दिन ।