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सीता: एक नारी / तृतीय सर्ग / पृष्ठ 1 / प्रताप नारायण सिंह

स्वीकार करती बंध जब, सम्मान नारी का तभी
होती प्रशंसित मात्र तब, संतुष्ट जब परिजन सभी

भ्राता, पिता, पति, परिजनों की दासता में रत रहे
होती विभूषित नारि जो मन की नहीं अपने कहे

उसके लिए इच्छा-अनिच्छा व्यक्त करना पाप है
जीवन जगत में नारि का कोई बड़ा अभिशाप है

बस कष्ट ही तो नीतियों के नाम पर उसने सहा
मरजाद के निर्वाह का दायित्व उस पर ही रहा

मैंने बचा ली लाज सहकर ताप, जो रघुवंश की
हर्षित सभी, सुधि थी किसे मेरे हृदय के दंश की

अभिभूत थे श्रीराम मेरे हो रहे यशगान से
संतप्त था जो मुख, हुआ दर्पित पुनः अभिमान से

जो बुझ गए थे उन दृगों में उतर आई कांति थी
उन्मन हुए हिय प्राण में अब एक अद्भुत शांति थी

हम चल दिए कपिगण सहित वापस अयोध्या के लिए
लंकाधिपति प्रभु चरण में पुष्पक सहित प्रस्तुत हुए