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सीता: एक नारी / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ 10 / प्रताप नारायण सिंह

वन में भरत के, अवध में निज तात के प्रतिरोध में-
की गर्जना थी, जनकपुर में उठ खड़े थे क्रोध में

पर आज क्यों तुम सिर झुकाए इस तरह से मौन हो
रघुवीर के अन्याय के प्रतिकार में कुछ तो कहो

थे तिलमिला उठते सदा, अन्याय कब तुमने सहा
पर वह तुम्हारा चिर अखंडित क्रोध इस पल है कहाँ

हे शेष! क्रोधित फन तुम्हारा आज क्यों उठता नहीं
क्यों आचरण इस पल तुम्हारा पूर्व सा दिखता नहीं

अति रोष-प्रिय, औ' स्पष्ट-वक्ता ही तुम्हें सब जानते
अन्याय-रोधी व्यक्ति मिथिला, अवध में सब मानते

पर आज उर्जित तन्तु क्यों हैं संकुचित लगते सभी
यूँ लग रहा पाताल जाना चाहते हो तुम अभी

सहना धरा का भार तो आसान होता है बड़ा
अतिशय कठिन पर साथ जग में सत्य के होना खड़ा

है और उससे भी कठिन तो न्याय मेरे प्रति यहाँ
अन्याय का प्रतिकार, नारी के लिए होता कहाँ

बस राम के प्रति हो रहा अन्याय तुमको दीखता
पर राम के अन्याय से क्यों उर नहीं है भींचता

इस मौन का उत्तर लखन तुम दे न पाओगे कभी
यह मुँह छुपाओगे कहाँ, जब प्रश्न पूछेंगे सभी