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सीता: एक नारी / पंचम सर्ग / पृष्ठ 1 / प्रताप नारायण सिंह

संतप्त मन, हिय दाह पूरित, नीर लोचन में लिए
मुझको विपिन में छोड़कर लक्ष्मण बिलखते चल दिए

निर्लिप्त, संज्ञा शून्य, आगे लड़खड़ाते वे बढ़े
उठते नहीं थे पाँव, रथ पर अति कठिनता से चढ़े

रक्षार्थ खींचा था, गमन करते हुए, रेखा कभी
पर छोड़ असुरक्षित मुझे वे विपिन में, लौटे अभी

लेकिन नहीं दुर्भावना मन में उठी उनके लिए
थे कर्मचारी राज्य के दायित्व निज पूरा किए

निर्दोष थी मैं, सत्य यह थे राम, लक्ष्मण जानते
पर कर्मचारी तो सदा विधि राज्य का ही मानते

भाषा नियम की, राज्यकर्मी सर्वदा ही बोलते
हर सत्य को केवल विधानों पर सदा हैं तोलते

होता नहीं है मूल्य कोई व्यक्तिगत संज्ञान का
उनके लिए तो सत्य होता मान्य, लेख विधान का

भेजा गया अनुसार विधि ही अवध के मुझको यहाँ
कुल-गुरु तथा ऋषि, मुनि किसी ने भी उन्हें रोका कहाँ

मैं अग्नि में उतरी परीक्षा हेतु लेकिन बच गई
पर आज तो मेरी परीक्षा ही यहाँ स्वाहा हुई

मैं सच नहीं इस राज्य में अपना प्रमाणित कर सकी
देकर परीक्षा भी नहीं संतुष्टि मन में भर सकी