Last modified on 6 नवम्बर 2019, at 19:48

सीता: एक नारी / पंचम सर्ग / पृष्ठ 5 / प्रताप नारायण सिंह

सब रीछ वानर साथ लड़ जीते महासंग्राम को
सौंपा मुझे था बिन किसी आरोप के श्रीराम को

संदेह के घन हृदय पर उनके तनिक छाए नहीं
स्वीकार मुझको अवध के जन किन्तु कर पाए नहीं

करते अवध-जन रूढ़िवादी सोच की अभिव्यंजना
वनचर तथा पशु-पक्षियों से हीन है संवेदना

हत्या हुई है आज मानव-मूल्य की इस तंत्र में
आदर्श शासन देखते पर राम तो जनतंत्र में

था फट पड़ा आकाश, पैरों के तले खिसकी धरा
अपमान के संताप से हिय, प्राण था मेरा भरा

मस्तक टिकाकर भूमि पर मैं देर तक रोती रही
गुरु वेदना के भार से मैं चेतना खोती रही

ऊपर उठाया भाल, मैंने एक आहट जब सुनी
उज्जवल वसन में सामने देखा खड़े कोई मुनी

थे केश सारे धवल, लोचन में अलौकिक दीप्ति थी
रुद्राक्ष माला कंठ में, मुख पर झलकती तृप्ति थी

कुछ शिष्य भी थे साथ उनके जो तनिक पीछे खड़े
थी आम्र लकड़ी हाथ में, ज्यों यज्ञ करने थे बढ़े

ऋषि का अलौकिक तेज लख कर दण्डवत मैंने किया
“संताप, दुःख से मुक्त हो!” आशीष यह ऋषि ने दिया

पुत्री! नहीं हो विपिन में तुम अपितु निज आगार में
वाल्मीकि आश्रम हर्ष से प्रस्तुत सिया सत्कार में