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सीता: एक नारी / प्रथम सर्ग / पृष्ठ 7 / प्रताप नारायण सिंह

आकृति हुई थी स्पष्ट, वह तो दिव्य कोई हरिण था
था चर्म सोने का बना, तन माणिकों से जड़ित था

यूँ तो स्वतः सौंदर्य मृग का मुग्ध करता सर्वथा
फिर दामिनी सा दीप्तिमय वह स्वर्ण का सारंग था

माया कुलाँचे भर रही थी, रूप धर मृग स्वर्ण का
चहुँ ओर फैला था उजाला, सौम्य कंचन वर्ण का

मन प्रेम पाकर सघन, था उल्लास से पहले भरा
अद्भुत, अलौकिक मृणिक का सौंदर्य-सुख था दोहरा
 
आनंद-पुष्कर मध्य पंकज कामनाओं का उगा
मृग चर्म पाने को हृदय था मचलने तत्क्षण लगा

था स्वर्ण प्रिय, लेकिन नहीं आसक्ति थी मुझको कभी
किंचित नहीं दुःख था, चली वन, त्याग आभूषण सभी

भौतिक पदार्थों के लिए कुछ मोह था मन में नहीं
था सूक्ष्म अतिशय प्रबल मेरा, सादगी प्रियकर रही

पर भाग्य मेरा क्षुद्र जिसने बुद्धि को था हर लिया
"मृग स्वर्ण का संभव नहीं", यह तक नहीं गुनने दिया

वाहक कई उत्पन्न मन में कर दिया था लोभ का
जो अंततः कारण बना मेरे दुसह दुःख भोग का