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हजारों में किसी इक आध के ही ग़ैर होते हैं / नीरज गोस्वामी

हजारों में किसी इक आध के ही ग़ैर होते हैं
वगरना दुश्मनी करते हैं जो होते वो अपने हैं

कभी मेरे भी दिल में चांदनी बिखरा जरा अपनी
सुना है लोग तुझको चौदहवीं का चाँद कहते हैं

कोई झपका रहा आंखें है शायद याद कर मुझको
अंधेरी रात में जुगनू कहां इतने चमकते हैं

हमें मालूम है घर में नहीं हो तुम मगर फिर भी
यूं ही आंगन में जा जा कर तुम्हें आवाज़ देते हैं

ज़रूरी तो नहीं के फूल हों या फिर लगे हों फल
ये क्या कम है मेरी शाखों पे फिर भी कुछ परिंदे हैं

मनाते हैं बहुत लेकिन नहीं जब मानता है तो
हमीं थक हार कर हर बात दिल की मान लेते हैं

कहीं चलते नहीं दुनिया में फिर भी नाज़ है इनपर
विरासत में ये हमने प्यार के पाए जो सिक्के हैं

दिखाई दे रहा है जो, हमेशा सच नहीं होता
कहीं धोखे में आंखें हैं, कहीं आंखों के धोखे हैं

भले थे तो किसी ने हाल त़क 'नीरज' नहीं पूछा
बुरे बनते ही देखा हर तरफ अपने ही चरचे हैं