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हसीन आँखों की बात हो या / विजय 'अरुण'

हसीन आँखों की बात हो या, हसीं लबों की वह सब ग़ज़ल है
ग़ज़ल मुहब्बत की दास्तां है कि दिल के कहने का ढब ग़ज़ल है।

ग़ज़ल की तारीफ़ अब नहीं हैं कि हो 'सुख़न अज़ ज़नान गुफ़्तन<ref>औरतों की बातें करना</ref>
समाए इस में हर एक मज़मूं, बहुत वसीअ है जो अब ग़ज़ल है।

ग़ज़ल हो मुख़्तसर<ref>संक्षिप्त</ref> कि हो जामा<ref>पूर्ण</ref>, मगर हर इक शे' र हो नगीना
कि सुनते ही दिल में बैठ जाए, अगर हो ऐसा तो तब ग़ज़ल है।

जहान भर में हर एक क़ायल, अगर है अब उर्दू शायरी का
तो इस के बारे में सच यही है कि इस का वाहिद<ref>अकेला</ref> सबब ग़ज़ल है।

वो नज़्म हो कि क़ता, रुबाई, वह गीत हो या दोहा, चौपाई
ये सब है पैग़मबराने शे'री, मगर' अरुण' जो है रब ग़ज़ल है।

शब्दार्थ
<references/>