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अब भी बाक़ी है / अनूप अशेष

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अब तो यह मत कहो
कि तुममें रीढ़ नहीं है

      तुम में ज़िन्दा
      अब भी
      पतली मेंड़

गई जोत में
फिर भी आधी अब भी बाकी है
ढेलों में साँसों की ख़ातिर
घर की चाकी है

      एहसासों के हर किंवाड़ को
      रखना
      मन में भेड़

सुलगा कर
कोनों में रखना देहों की तापें
खुद से दूर न होंगी
अपनी पुश्तैनी
नापें

      बिस्वे होंगे बीघे होंगे
      खेती
      अपनी छेड़