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बात सालों की है / मनविंदर भिम्बर

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बात सालों की है
दहलीज पर एक
जोगी आया
उसने माँगे कुछ अक्षर
पहले मैं सोच में पड़ गई
फिर
रब को याद किया और
मैंने दे दिए उसे अक्षर

उसने अक्षरों की माला गूंथी
आँखों से चूमी
और मेरी ओर बढ़ा दी
मुझे वो जोगी नहीं
बादलों से उतरा एक नूर-सा लगा

मंत्रों के नूर से उजली हुई
वो माला मेरे सामने थी
मैं अडोल-सी खड़ी रह गई
और सोचने लगी
कैसे लूँ माला को

माला को झोली में लेने से पहले ही
मेरे पाँव चल चुके कई काल
काल के चेहरे थे
कुछ अजीब
किसी के हाथ में पत्थर थे
तो किसी के हाथ में फूल

फिर अचानक
मैंने वो माला झोली में ले ली
और सीने से लगा ली
उपर से पल्ला कर लिया
पल्ले के अंदर बन गया इक संसार

अब कभी-कभी पल्ला हटा कर
माला के अक्षरों को काग़ज़ पर रखती हूँ
कभी उनकी कविता बनती है
तो कभी नज़्म

जोगी का फेरा जब लगता है
कागज पर रखे अक्षरों को देखता हैं
मुस्कराता है
कहता है
यही तो मैं चाहता था

इनकी कविता बने
नज़्म बने
और बिखर जाएँ वे सारी कायनात में