Last modified on 9 जनवरी 2011, at 12:27

किसकी कुशल-क्षेम पूछें अब / नईम

डा० जगदीश व्योम (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:27, 9 जनवरी 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

किसकी कुशल-क्षेम पूछें अब,
किसको
अपनी पीर परोसें ?
किसको कहाँ
असीसें भेजें
किस-किस की चुप्पी को कोसें ?

फिक्रमंद इन-उनकी ख़ातिर
अपनी ही गो ख़बर नहीं है ।
समय रुक गया है पहाड़-सा
बजता कोई गजर नहीं है ।
पहचाने खो गई हमारी
किनको छोड़ें, किन्हें भरोसें ?

रकबे बचे रह गए थे जो
इस सीलिंग, उस चकबंदी से,
लाख जतनकर बचा न पाए
हम एरावत औ’ नंदी से ।
रखवाले सो रहे तानकर -
प्रजातंत्र को कैसे दोषें ?

प्राणों पर बन आए उजागर
शरद, शिशिर हेमंतों के दिन,
विगर पूछते - हमसे बैठे
थानेदार बसंतों के दिन ।
अब न रहीं वो रितुएँ जिनके
जूड़े में अपनापन खोंसें ।

किसकी कुशल-क्षेम पूछें अब,
किसको
अपनी पीर परोसें ।