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अकेला / मनोज कुमार झा

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मैं साही की देह का काँटा
झमकता झनझनाता तोड़ता सन्नाटे का पत्थर
एक दिन गिर पड़ा
जब रात की पंखुड़ियाँ ओस से तर थीं
न हवा तेज़ थी और साही की गति भी मंद
अब इस खेत में पड़ा हूँ ऊपर पड़ा ढेला
पता नहीं कहाँ जाऊँगा
बाढ़ आने का समय हो गया है