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क़हर की क्यूँ निगाह है प्यारे / मुल्ला

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ख़मोशी साज़ होती जा रही है
नज़र आवाज़ होती जा रही है

नज़र तेरी जो इक दिल की किरन थी
ज़माना-साज़ होती जा रही है

नहीं आता समझ में शोर-ए-हस्ती
बस इक आवाज़ होती जा रही है

ख़मोशी जो कभी थी पर्दा-ए-ग़म
यही ग़म्माज़ होती जा रही है

बदी के सामने नेकी अभी तक
सिपर-अंदाज़ होती जा रही है

ग़ज़ल 'मुल्ला' तेरे सेहर-ए-बयाँ से
अजब एजाज़ होती जा रही है