Last modified on 26 जून 2013, at 13:39

दाल बराबर याद रखना / मनोज कुमार झा

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:39, 26 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनोज कुमार झा }} {{KKCatKavita}} <poem> याद रख पा...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

याद रख पाना आसान कहाँ उतना
जितना कि वक्त पर काम आ सकने वाले
टेलीफोन नंबरों को उचारकर मान लेते हैं हम।
कंप्यूटर की कुंजियों को दबाने से
जो सूचना-मरीचिका बनती है
कुछ सूचनाएँ ठंडी मेमोरी से उछलकर
चौंधियाऊ स्क्रीन के पीछे जमा हो जाती हैं
वे तो सोने के पानी से भी कम गहरी होती हैं।

याद रह भी जाए कि कौन-सी दाल बनती थी घर में अमूमन
तो भूल जाते हैं छौंक की लय
रही और बटुली की संगत से उत्पन्न झंकार
और स्वाद की सतरंगी परतें।

माँ ने कहा था कि यह मिर्च का टुकड़ा फेंक दो निकालकर
वरना बेहाल हो जाएगी आँखें और मुँह के अंदर की त्वचा
कठरा वाली ने दिया था इसका बीया
बड़ी तीखी तासीर है इसकी।

माँ ने यह भी कहा था कि मत छोड़ो उसे
वह जो थोड़ी-सी बची है कटोरी की पेंदी में
अपनी कटोरी में बची थोड़ी दाल भी बहुत होती है
अब भी भाग्यवान को ही नसीब होती है
भरी कटोरी गाढ़ी स्वादिष्ट दाल
और भी बहुत कुछ कहा था माँ ने...।

दाल बराबर भी याद नहीं...
घनघन कर रही पाँखलगी चींटियाँ सूचनाओं की
वो तो एक ने उठाया धरती से शक्कर तो आई माँ की याद।