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न कर शुमार हर शय गिनी नहीं जाती / फ़ज़ल ताबिश

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न कर शुमार हर शय गिनी नहीं जाती
ये जिंदगी है हिसाबों से जी नहीं जाती

ये नर्म लहजा ये रंगीनी-ए-बयाँ ये ख़ुलूस
मगर लड़ाई तो ऐसे लड़ी नहीं जाती

सुलगते दिन में थी बाहर बदन में शब को रही
बिछड़ के मुझ से बस इक तीरगी नहीं जाती

नक़ाब डाल दो जलते उदास सूरज पर
अँधेरे जिस्म में क्यूँ रोशनी नहीं जाती

हर एक राह सुलगते हुए मनाज़िर हैं
मगर ये बात किसी से कही नहीं जाती

मचलते पानी में ऊँचाई की तलाश फ़ुजूल
पहाड़ पर तो कोई भी नदी नहीं जाती