Last modified on 20 जुलाई 2013, at 13:05

ख़ौफ से अब यूँ ने अपने घर का दरवाज़ा लगा / शाहिद मीर

सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:05, 20 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शाहिद मीर }} {{KKCatGhazal}} <poem> ख़ौफ से अब यू...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

ख़ौफ से अब यूँ ने अपने घर का दरवाज़ा लगा
तेज़ हैं कितनी हवाएँ इस का अंदाज़ा लगा

ख़ुश्‍क था मौसम मगर बरसी घटा जब याद की
दिल का मुरझाया हुआ ग़ुंचा तर ओ ताज़ा लगा

रौशनी सी कर गई क़ुर्बत किसी के जिस्म की
रूह में खुलता हुआ मशरिक़ का दरवाज़ा लगा

ये अँधेरी रात बे-नाम-ओ-निशां कर जाएगी
अपने चेहरे पर सुनहरी धूप का ग़ाज़ा लगा

ज़ेहन पर जिस दम तिरा एहसास ग़ालिब आ गया
दूर तक बिखरा हुआ लफ़्जों का शीराज़ा लगा

हम-ख़याल ओ हम-नवा भी तुझ को मिल ही जाँएगे
रात के तन्हा मुसाफ़िर कोई आवाज़ा लगा