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हिज्र की मंज़िल हमें अब तक पसन्द आयी नहीं / 'महताब' हैदर नक़वी

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हिज्र की मंज़िल हमें अब तक पसन्द आयी नहीं
हम अकेले हैं मगर हमराह तनहाई नहीं

एक दिन छिन जायेगा आँखों सारा रंग-ओ-नूर
देख लो इनको कि ये मंज़र हमेंशाई नहीं

इक जुनूँ के वास्ते बस्ती को वुसवत दी गयी
एक वहशत के लिये सहरा में पहनाई नहीं

कौन से मंज़र की ताबानी अँधेरा कर गयी
ऐसा क्या देखा कि अब आँखों में बीनाई नहीं

जब कभी फ़ुरसत मिलेगी देख लेंगे सारे ख़्वाब
ख़्वाब भी अपने हैं ये रातें भी हरजाई नहीं