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तुझ से शिकवा न कोई रंज है तन्हाई का / 'महताब' हैदर नक़वी

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तुझ से शिकवा न कोई रंज है तन्हाई का
था मुझे शौक़ बहुत अंजुमन-आराई का

कुछ तो आशेब-ए-हवा और हवस की है शिकार
और कुछ काम बढ़ा है मेरी बीनाई का

आई फिर नाफ़ा-ए-इमरोज़ से ख़ुश्बू-ए-विसाल
खुल गया फिर कोई दर बंद पज़ीराई का

मैं ने पोशीदा भी कर रक्खा है दर-पर्दा-ए-शेर
और भरम खुल भी गया है मेरी दानाई का

यानी इस बार भी वो ख़ाक उड़ी है के मुझे
एक खटका सा लगा रहता है रूसवाई का

शाएरी काम है मेरा सो मैं कहता हूँ ग़ज़ल
ये अबस शौक़ नहीं क़ाफ़िया-पैमाई का