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मर्द बनो / रचना त्यागी 'आभा'

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आओ दरिन्दों
मुझे लूटो, खसोटो, नोचो!
ग़ौर से देखो
एक नारी हूँ मैं
ब्रहा द्वारा तैयार
तुम्हारे ऐशो आराम का सामान,
तुम्हारी ऐय्याशी का सामान,
तुम्हारी पाश्विक, घिनौनी और नरपैशाचिक
ज़रूरतों को पूरा करने का सामान!
चिथड़े-चिथड़े कर दो
वो झूठी अस्मिता
जो बचपन से मैं
साथ लेकर जी रही थी!
दिल दहला देने वाली मर्दानगी दिखा दो
सारी दुनिया को!
अरे, मर्द हो!
कोई मज़ाक है क्या?
ऐसी दुर्गति कर दो
मेरी आत्मा और शरीर की,
कि पूरी औरत जमात
सात पीढ़ियों तक काँपे,
औरत होने के लिये!!
डरो मत!!
अधिक कुछ नहीं होगा!
तुम्हारी तलाश, और कुछ
सजा के बाद सब ठीक हो जायेगा तुम्हारा,
धीरे-धीरे!
मैं शायद न बचूँ
अपने जऩ्मदाताओं की
जीवन पर्यन्त यातना देखने,
और मुझ पर चल रही
टी वी चैनलों की प्राईम टाईम बहस देखने
और वे तमाम धरने और प्रदर्शन देखने,
जो इस तुम्हारे क्षणिक सुख से उपजे!!
पर वो सब बाद की बातें हैं!
शायद इतनी आबादी में
सब भूल भी जायें!
पर तुम तो अपना कर्म करो,
जिसके लिये तुम्हे
देवतुल्य पुरुष जीवन मिला है!!
मर्द बनो!! निडर होकर!!!