Last modified on 5 अगस्त 2015, at 11:30

वासन्ती परकीया विलास / राजकमल चौधरी

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:30, 5 अगस्त 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजकमल चौधरी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

एहि बेरक वसन्त छल अगिन-बान
एहि बेर पुष्पमे विष,
गीत-कुंजमे मुइल पड़ल छल साप।
एहि बेर ने कविता-नीवी फूजल
पुष्पमे विष;
वायुमे नरक-गन्ध
एहि बेर ने सुनलहुँ कोनो डारिपर
कोकिल-तान!
गीत-कुंजमे मुइल पड़ल छल साप
वायुमे नरक-गन्ध;
एहि बेरक वसन्त छल अगिन-बान।

राजा कहलनि-ई आखेटक ऋतु
हम वन-यात्रा करब;
प्रणय-बद्ध हरिणक जोड़ाकेँ मारब
चल जायब हिम-पर्वत-पार
राजा कहलनि-ई आखेटक ऋतु
मार्ग दिय’
हे कामिनि, फोलू सिंहद्वार!
रथपर चढ़ि राजा चल गेलाह।
अपन दासीकेँ रानी कहलनि-
राजाजी ठीके छथि बताह
जंगल पड़ायल छथि उद्यान छोड़ि,
पशु-पक्षीक संग धयने छथि
एहि महलक अभिमान छोड़ि।
दासी हँसलनि
गंगा-जमुनी पलंगपर रानी खसलीह
गीत-कुंजमे मुइल पड़ल छल साप
एहि बेर ने कविता-नीवी फूजल
वायुमे नरक-गन्ध
वासन्ती परकीया अछि रूसलि!

रथक चक्कामे बान्हल अछि
कारी सुरुज-चान
गंगा-जमुनी पलंगपर पसरल अछि
पीयर, सड़ल पान।

एहि जंगलमे कतहु मार्ग नहि
चारू कात अन्हार,
चिड़ै चुनमुनी नहि गबैत अछि
एहि बाटे कोनो हरिण नहि अबैत अछि
हम अपनहि छी शर-बिद्ध!
हमरे मृत्युक करुण प्रतीक्षा
आइ करैत श्मशानक सभटा गिद्ध,
हम वसन्त ऋतुराज
दम्भ, पीड़ा, आत्मग्लानि, घृणामे
आठो काल जरै छी
अपपने अगिन-बानसँ अपनहिँ छी शर-बिद्ध।
अपने मानसकन्या सीताक अग्निपरीक्षा
आठो काल करैत छी
हमरे मृत्युक करुण प्रतीक्षा
श्मशानक सभटा गिद्ध करै अछि
हमरे रानी केर पलंगपर
सौसे गाम मरै अछि,

के कहलक हम छी वसन्त ऋतुराज!
अछि हमर मार्ग अवरुद्ध
गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, मनुक्ख, देवता
सभ हमरेपर क्रुद्ध,
हमरे रानी केर पलंगपर
सौँसे गाम मरै अछि!

गोलाम्बर पृथ्वीक सभ पात्र रिक्त छल
सोमरस (माहुर) धरि निश्शेष
विलास-उत्सव नहि होयत,
चानक नौकापर आब क्यो नहि करत विहार

सभ पात्र रिक्त छल,
गंगाजलसँ घर-आङन नीपल
मोनमे कोनोटा नहि क्लेश
सोमरस (माहुर) धरि निश्शेस!
मृत्युमय शान्ति छल दशो दिशामे
आब क्यो नहि करत विहार
वासन्ती परकीया-विलास केर एहि मरण-निशामे,
गीत-कुंजमे मुइल पड़ल अछि साप
एहि बेर ने कविता-नीवी फूजत,
एहि बेर लोक नहि गाओत गान
हमर क्लान्ति नहि संगी बूझत
वसन्त अछि अगिन-बान,
चानक नौका जरल जाइत अछि
हमर मांस सभ गिद्ध खाइत अछि!
राजा कहलनि-रथ घुमा लिय’
हम अपन महलमे जायब,
रानी कहलनि-राजा गेलाह विदेश
रथ घुमा लिय’
हमहूँ वन-पर्वतमे भसिआयब,
दासी बाजलि-राजा-रानी नहि छथि
रथ घुमा लिय’
चलू महलमे नाचब-गायब!

(मिथिला मिहिर: 4.4.65)