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गा मंगल के गीत सुहागिन! / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

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गा मंगल के गीत सुहागिन!
चौमुख दियरा बाल के!

आज शरद की साँझ, अमा के
इस जगमग त्योहार में-
दीपावली जलाती फिरती
नभ के तिमिरागार में,

चली होड़ करते तू, लेकिन
भूल न,-यह संसार है;
भर जीवन की थाल दीप से
रखना पाँव सँभाल के!
सम्मुख इच्छा बुला रही,
पीछे संयम-स्वर रोकते,
धर्म-कर्म भी बायें-दायें
रुकी देखकर टोकते,
अग-जग की ये चार दिशायें
तम से धुँधली दीखती;
चतुर्मुखी आलोक जला ले
स्नेह सत्य ता ढाल के!
दीप-दीप भावों के झिलमिल
और शिखायें प्रीति की,
गति-मति के पथ पर चलना है
ज्योति लिये नव रीति की,
यह प्रकाश का पर्व अमर हो
तमके दुर्गम देश में;
चमके मिट्टी की उजियाली
नभ का कुहरा टाल के!

(प्रथम कविता संग्रह ‘भूमिका’ 1950, भारती भण्डार, इलाहाबाद में संगृहीत)