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रंग-ओ-बू के तलबगार सब हैं मगर फूल का बोझ कोई न सह पाएगा / ज़ाहिद अबरोल

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रंग-ओ-बू के तलबगार सब हैं मगर, फूल का बोझ कोई न सह पाएगा
आज ख़ुश है मुझे पा के जो शख़्स वो, इक न इक दिन कहीं मुझको फेंक आएगा

शौक से जा तू दामन बचा कर मगर, यह बता कर तो जा ऐ मिरे हमनशीं
सूख जाएगा पानी जो तालाब का, क़ाफ़िलः मछलियों का कहां जाएगा

क़ुर्बतें रस्म-ए-जौहर अदा कर चुकीं, दोस्त शर्मिन्दः हैं दोस्ती पर मगर
सोचता हूं दिलों में जमी बर्फ़ को, इक चिता का धुआं कुछ तो पिघलाएगा

क्यूं वो सूरज को नाहक़ उठाते फिरंे, किस लिए रात दिन वो मशक़्क़त करें
उनको मा‘लूम है बर्फ़ के शहर में, धूप के ज़िक्र से काम चल जाएगा

क्यूं हक़ारत से देखे है “ज़ाहिद” इसे, ग़म का एहसास है तेरा रख़्त-ए-सफ़र
जब तू पाऐगा ख़ुद को अकेला यहां, तब यही ग़म तिरे दिल को बहलाएगा

शब्दार्थ
<references/>