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रैदास की कठौत / आरसी चौहान

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रख चुके हो क़दम
सहस्त्राब्दि के दहलीज़ पर
टेकुरी और धागा लेकर
उलझे रहे
मकड़जाल के धागे में
और बुनते रहे
अपनी सांँसों की मलीन चादर
इस आशा के साथ
कि आएगी गंगा
इस कठौत में

नहीं बन सकते रैदास
पर बन सकते हो हिटलर
और तुम्हारे टेकुरी की चिनगारी
जला सकती है
उनकी जड़
जिसने रौंदा कितने बेबस और
मजलूमों को।