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क्रासिंग/ अरुण देव

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जहाँ सड़क को काटती है रेल वहाँ रेल के आने पर सड़के ठहर जाती हैं
अभी सड़क के नीचे न सुरंग हैं न पुल
कि यात्राएँ न काटें एक दूसरे को

तभी एकाएक आ गए कुछ बच्चे अधनंगे, मटमैले, धूप में तपे हुए
पिंजरों में लिए तोते

उनकी याचनामूलक ध्वनियों का सभी भाषाओँ में एक ही अर्थ था
वे मुहँ से नहीं पेट से बोल रहे थे

घरों में पक्षियों की आवाज़े कब से चुप थीं कि अब वे स्मृतियों से भी धुल गई थीं
बच्चों के पास खेलने के इतने यन्त्र थे कि वे उसी में सुन लेते तमाम तरह के शोर
मासूमियत, जंगल, पक्षी, जानवर इनका अब आपसी रिश्ता नहीं बचा था

पके अमरूदों में ख़ुश तोतों को यह सोच कर पकड़ा गया था कि
उनकी नक़ल की कला का कोई मूल्य अभी बचा हो बाज़ार में

बिकने से रह गए तोते न जाने राहत महसूस कर रहे थे कि लज्जा

जो पक्षियों से प्यार करना भूल जाते हैं वे एक दिन उन्हें मार देते हैं

वे उन्हें मारते हैं धुएँ और शोर से मोबाईल टावर के रेडियेशन से
वे पहले एक पेड़ की हत्या करते हैं फिर धीरे-धीरे मर जाता है जंगल

अब अगर यह मनुष्यों की यात्रा थी तो इसमें पक्षियों की जगह नहीं रही
और इस सड़क को काटती नहीं है कोई भी सड़क।