गुलसिताँ में आ गया कैसा ज़माना आजकल,
दामने सैयाद में है आबोदाना आजकल।
ख़ल्क से मिटने को है क्या प्यार का नामोनिशां
क्यूँ कि हर शै की फ़ितरत मुज़रिमाना आजकल।
तल्खि़ए अय्याम में गुज़रा है दौरे इन्क़लाव,
शाम कहती में सबेरे का फ़साना आजकल।
जिनकी नज़दीकी में हमने काट दी तन्हाइयाँ,
ढूँढ़ते हैं उनसे मिलने का बहाना आजकल।
गुलसिताँ हों या बाग़वाँ सबको है इसका मलाल,
‘रंग’ ने कम कर दिया क्यों आना जाना आजकल।