Last modified on 2 जुलाई 2017, at 11:53

बदन में जो शरारें हैं, रहेंगे / ध्रुव गुप्त

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:53, 2 जुलाई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ध्रुव गुप्त |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बदन में जो शरारें हैं, रहेंगे
तसव्वुर में सितारें हैं, रहेंगे

रहेगी पांव में आवारगी भी
जो घर हमने संवारे हैं, रहेंगे

वहां से आसमां अच्छा लगा था
वो जंगल भी हमारे हैं, रहेंगे

मेरे असबाब कमरे से निकालो
परिंदे ढेर सारे हैं, रहेंगे

हवा , तारें, अंधेरे, चांद, जुगनू
जो रातों के सहारे हैं, रहेंगे

मेरे अतराफ़ है कैसी उदासी
यहां जो ग़म के मारे हैं, रहेंगे

नदी आंखों में कोई है हमेशा
नदी के दो किनारें हैं, रहेंगे

मैं गीली आंख रख आया वहां पे
जहां सायें तुम्हारे हैं, रहेंगे

खुदा मालिक रहे ऐसे ज़हां का
यहां हम से बेचारे हैं, रहेंगे