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इस असमय उठ रहे बवण्डर की गति / मुन्नी गुप्ता

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सुनो ! चित्रकार,
       समन्दर का ख़त्म होना
       एक नए प्रलय का संकेत है
 
समन्दर टूट रहा है लगातार
दरक रहा है निरन्तर
                 भीतर ही भीतर
 
सतह पर,
हवा और लहरों का क्रूर खेल जारी है
भीतर ज़लज़ले की स्थिति बन रही है
 
लहरें कब उलटी पड़
जीवन का ताण्डव रचेंगी
 
उससे सभी हैं अनजान औ’
                 बेख़बर ।
 
बहेलिया, अपने उलझे जाल को
सँवारने में उलझा है
 
मछुआरा, चिन्तित, मौन और बेचैन है
लहरों के नर्तन से
समय की गति और दिशा भाँप रहा है
 
उसे अहसास है — विषाक्त हवाएँ
       उलटी पड़ने को हैं
जीवन-चक्र उलट सकता है
लहरें एक नए जीवन का इतिहास रचने को
बेचैन जान पड़ती हैं
 
मछुआरा, चित्रकार से कहता है —
क्या तुम, इस असमय उठ रहे बवण्डर की गति
मोड़ नहीं सकते ?
और चित्रकार, उम्मीद भरी आँखों से
चिड़िया को देखता है और मुस्कुराता है
— उसके इस चेहरे में
बाँसुरी वाले की लीला
झलकती है ।