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जागो, हे गीत-पुरुष ! माँग है समय की / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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जागो, हे गीत-पुरुष !
माँग है समय की ।
सम्भले कुछ बिगड़ी गति
छन्द और लय की !

सोने का समय नहीं
यह जाग्रति-वेला
चहल-पहल, कलरव का
लगना है मेला
क्षितिज बाट जोह रहा
बस सूर्योदय की !

बीत गया शीत
हुआ सूर्य उत्तरायण
शरशैया छोड़ो
सम्वेदना-परायण
करनी है यात्रा
ब्रह्माण्ड के वलय की !

तिमिस्रान्ध वसुधा पर
भोर नई जागे
फैले आलोक
धुन्ध, अन्धकार भागे
प्रसरित हो गन्ध चतुर्दिक
प्रभा मलय की !

रचनी है एक नई
सृष्टि छन्दधर्मी
रँगों का इन्द्रधनुष
बुनो, रँगकर्मी !
नभ गाथा बाँचेगा
पुनः दिग्विजय की !

है किंकर्तव्य समय
कुछ न सूझ पड़ता
शिलीभूत हिम पिघले
टूटे हर जड़ता
लाज रखो इस अधीर
युग के अनुनय की !

शब्दों को मिले अर्थ
अभिप्राय, आशय
क्षुधा को प्रभूत अन्न
तृषा को जलाशय
दिव्यता मिले मन को
भव्य हिमालय की !