Last modified on 11 अक्टूबर 2019, at 02:25

ज़ुल्मते-ए-शब से उलझना है सहर होने तक / नौ बहार साबिर

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:25, 11 अक्टूबर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नौ बहार साबिर |अनुवादक= |संग्रह= }} {{K...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

ज़ुल्मते-ए-शब से उलझना है सहर होने तक
सर को टकराना है दीवार में दर होने तक

अब तो उस फूल के निकहत से महकती है हयात
ज़ख़्म-ए-दिल ज़ख़्म था तहज़ीब-ए-नज़र होने तक

दिल ही जलने दो शब-ए-ग़म जो नहीं कोई चराग़
कुछ उजाला तो रहे घर में सहर होने तक