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बाबूजी के सपने / कौशल किशोर

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बाबूजी क़लम घिसते रहे काग़ज़ पर
जिन्दगी भर
और चप्पल ज़मीन पर

वे रेलवे में किरानी थे
कहलाते थे बड़ा बाबू

उनकी औकात जितनी छोटी थी
सपने उतने ही बड़े थे
और उसमें मैं था, सिर्फ़ मैं
किसी शिखर पर
इंजीनियर से नीचे की बात
वे सोच ही नहीं पाते थे

ऐसे ही सपने थे बाबूजी के
जिसमें वे जीते थे
लोटते-पोटते थे
पर वे रेल-प्रशासन को
अन्यायी से कम नहीं समझते
उनकी आंखों पर चश्मे का
ग्लास दिन-दिन मोटा होता जाता
पर पगार इतनी पतली
कि ज़िन्दगी उसी में अड़स जाती
इसीलिए जब भी मजदूरों का आंदोलन होता
पगार बढ़ाने के लिए हड़ताल होती
'जिन्दाबाद-मुर्दाबाद' करते वे अक्सर देखे जाते
उनके कंधे पर शान से लहराता
यूनियन का झण्डा
लाल झण्डा!

एक वक़्त ऐसा भी आया
जब सरकार ने छात्रों की
बेइन्तहाँ फीस बढ़ा दी
फिर क्या?
फूट पड़ा छात्र आंदोलन
मैं आंदोलनकारी बाप का बेटा
कैसे ख़ामोश रहता
कूद पड़ा
मैं भी करने लगा 'जिंदाबाद-मुर्दाबाद'
मेरे कंधे पर भी लहरा उठा झण्डा
छात्रों के प्रतिरोध का झण्डा!

बाबूजी की प्रतिक्रिया स्तब्ध कर देने वाली थी
आव न देखा ताव
वे टूट पड़े मेरे कंधे पर लहरा रहे झण्डे पर
चिद्दी चिद्दी कर डाली
वे कांप रहे थे गुस्से में थर-थर
सब पर उतर रहा था
सबसे ज़्यादा अम्मा पर
वे बड़बड़ाते रहे और कांपते रहे
वे कांपते रहे और बड़बड़ाते रहे

हमने देखा
उस दिन बाबूजी ने अन्न को हाथ नहीं लगाया
अकेले टहलते रहे छत पर
अपने अकेलेपन से बतियाते रहे
उनकी यह बेचैनी
शिखर से मेरे गिर जाने का था
या उनके अपने सपने के
असमय टूट जाने का था

वह अमावस्या कि रात थी
बाबूजी मोतियों की जिस माला को गूंथ रहे थे
वह टूट कर बिखर चुकी थीं
मोतियाँ गुम हो गई थीं
उस अंधेरे में!