Last modified on 28 अगस्त 2020, at 16:16

एक चिट्ठी : जो पढ़ना चाहे / विजय बहादुर सिंह

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:16, 28 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय बहादुर सिंह |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

अन्धकार ! बस, अन्धकार !! बस, अन्धकार है !
हिंसा के सागर में आया प्रबल ज्वार है ।

जाग रही है बस्ती, छाती धड़क रही है,
लँगड़ी आन्धी के आने का समाचार है ।

गाँव-गाँव औ’ शहर-शहर भय का सन्नाटा
घृणा-द्वेष का फैला फिर काला बुखार है।

सकते में हैं होरी - धनिया - जुम्मन - अलगू
कुछ लोगों के चेहरों पर भारी निखार है ।

ओ ,मोटी - मोटी तनख़्वाहें पाने वालो !
अपने को सबसे ऊपर बतलाने वालो !

पत्रकार, लेखक, वक़ील, डॉक्टर, इंजीनियर,
ठेकेदार बुद्धि के, विद्या के पैगम्बर !

आओ अपने खोलों से अब बाहर आओ,
समय पुकार रहा है तुमको, राह सुझाओ,

अगर विवेक बचा है, तुम सचमुच ज़िन्दा हो,
अपनी अब तक की चुप्पी पर शर्मिन्दा हो,

जहाँ - जहाँ बैठे हो तुम, ऊपर या नीचे,
लोकतन्त्र की इस विपत्ति में आँखें मींचे,

अगर प्यार है तुमको इस अपने समाज से,
चिन्तित हो तुम सचमुच गिरती हुई गाज से,

इन सड़कों पर कौन मरा है खुलकर बोलो,
राजनीति के इस रहस्य का ताला खोलो,

स्वार्थों से ऊपर उठने का वक़्त यही है,
आओ, साबित करो तुम्हारा रक्त सही है,

आओ दोस्तो ! संकट की बेला है आओ,
अन्धकार की महाराशि है, दीप जलाओ !