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यह पत्थरों का शहर है पत्थर के लोग हैं / परमानन्द शर्मा 'शरर'

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यह पत्थरों का शहर है पत्थर के लोग हैं
इस घर में आके बस गए किस घर के लोग हैं

हमको न क़ैदो-बन्द के समझाओ क़ायदे
हम बे-मुहार जोगी हैं दर-दर के लोग हैं

ग़ैरों से कुछ गिला नहीं हैं ग़ैर फिर भी ग़ैर
अपनों से है गिला कि वो अन्दर के लोग हैं

वो जिन के साथ उम्र के क़ौलो-क़रार थे
बिल्कुल यक़ीं नहीं था कि पल भर के लोग हैं

हम हाले-दिल सुना के जिन्हें ख़्वार हो गए
मालूम क्या था सब के सब पत्थर के लोग हैं

किस किस को दे सकोगे तुम रग़बत उड़ान की
इस घर में सब ग़ुलाम हैं बे-पर के लोग हैं

कुछ लोग हैं कि जिनको शरर से लगाव है
वो साफ़-गो शफ़्फ़ाफ़ -दिल मरमर के लोग हैं