Last modified on 26 दिसम्बर 2009, at 11:57

विरह की अगन जलाये रे! / महावीर शर्मा

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:57, 26 दिसम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

विरह की अगन जलाये रे !

फागुन की मस्त बयार चले, विरह की अगन जलाये रे।
हरे वसन के घूंघट से तू सरसों क्यों मुस्काये रे?

नगर नगर और ग्राम ग्राम में अबीर के बादल छाये
प्रियतम तो परदेस बसे हैं, नयन नीर बरसाये रे।

चाँद की शीतल किरनों से श्रृंगार किया मैं ने अपना
अँसुवन से नयनों का काजल, बार बार धुल जाये रे।

फगुआ, झूमर औ चौताला जब परवान चढ़ी जाये
ढोल, मँजीरे और मृदंगा, तुम बिन जिय धड़काये रे।

बीत ना जाये ये फागुन भी, जियरा तरसे होली खेलन
गीतों की गमक, नृत्यों की धमक, सब तेरी याद दिलाये रे।

कागा इतना शोर मचाये, लाया है सन्देश पिया का
मधुकर भी मधु-रस पी पी कर, फूलों पर मँडराये रे।

हरे वसन के घूंघट से सरसों भी मुख चमकाये रे!!