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रात के सुनसान में मिलती है आग / विनोद तिवारी

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रात के सुनसान में मिलती है आग
हर घड़ी शमशान में मिलती है आग

पत्थरों के साथ हो लोहे का युद्ध
ऐसी खीँचातान में मिलती है आग

लुट चुके खेतों से उठता है धुआँ
अब किसी खलिहान में मिलती है आग

ताप बढ़ता है दिलों में इस तरह
जैसे रेगिस्तान में मिलती है आग

रुख़ हुआ बाज़ार का इतना गरम
अब तो हर दूकान में मिलती है आग

सर्द चुप्पी ओढ़ कर बैठे हो क्यों
दोस्त हर इंसान में मिलती है आग