Last modified on 27 मई 2010, at 13:20

फागुन आया रे / हेमन्त श्रीमाल

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:20, 27 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हेमन्त श्रीमाल |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> फागुन आया रे …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

फागुन आया रे
गलियों गलियों र।ग गुलाल
कुमकुम केसर के सौ थाल भर-भर लाया रे
फागुन आया रे

होंठ हठीले रंगे गुलाबी और नयन कजरारे
बिन्दिया की झिलमिल में लाखों चमक रहे ध्रुवतारे
लहँगा नीला चुनरी लाल
पीले कंचुक में कुसुमाल तन लहराया रे
फागुन आया रे

अ।ग-अ।ग में र।ग लिए चलती-फिरती पिचकारी
चला रही बैरागी मन पर इन्द्रधनुष-सी आरी
इक तो तीरेनज़र का वार
उस पर पिचकारी की धार, तप बहकाया रे
फागुन आया रे

घर-आँगन चौपालों पर ये कैसी होड़ लगी है
आगे आगे नन्दोई पीछे सलहज दौड़ रही है
हारा कर-करके फरियाद
फिर भी बेचारे दामाद को नहलाया रे
फागुन आया रे

चाँदी जैसी धूप और कुन्दन-सी चन्द्रकिशोरी
सुबह साँझ ने दबा रखी है मुँह में पान गिलौरी
कलियों-कलियों ने पट खोल
अपने घट का घूँघट खोल मद छलकाया रे
फागुन आया रे

बुरा न मानो मीत आज तो होली है भई होली
कहकर मौसम ने मधुबन के मुँह पर मल दी रोली
सूरज ने संध्या के साथ
रजनी ने संध्या के साथ, मुँह रंगवाया रे
फागुन आया रे