Last modified on 20 जुलाई 2010, at 16:27

बाप ने पठाया शहर / मनोज श्रीवास्तव

Dr. Manoj Srivastav (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:27, 20 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> ''' बाप ने प…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


बाप ने पठाया शहर

मेरे बाप ने
पठाया शहर मुझे

सोंधापन गांव का पीकर,
गालों पर फूल
होठों पर कलियां
बांहों में हरी-भरी डालियां
सजाकर, सहेजकर
और भिनसारे से सांझ तक
आंखों की चौरस छिपली में
परोसी जा रही
रस्सेदार व्यंजन छोडकर,
मैं चला आया यहां
सडक की तारकोली गंध सुडकने
धूल और निकोटीनी गैस फांकने
इमारतों की परछाइयां चबाने.