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तुम हो बहती तेज नदिया और मिट्टी का बना मैं / राजीव भरोल

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तुम हो बहती तेज नदिया और मिट्टी का बना मैं,
सोच कर अंजाम अपना दूर तुमसे हूं खड़ा मैं.

बारिशें आईं तो अपने साथ लाईं आंधियां भी.
मांगता था आसमां से बारिशों की क्यों दुआ मैं.

पास था अपनी जमीं के, खुश भी था लेकिन करूं क्‍या,
आंधियों में वक्‍त की जड़ से उखड़ कर गिर गया मैं.

आज मुझको फिर पुकारा गांव की अमराइयों ने,
रुक सकूंगा सुन के इसको और कितने दिन भला मैं.

भीग जाओगे अगर मुझको लगाओगे गले तुम.
दर्द की बस्ती से लौटा आंसुओं से हूँ भरा मैं.

ज़ख्म तो देता है लेकिन प्यार भी करता बहुत है,
अब करूं भी तो करूं क्‍या उस सितमगर का गिला मैं.

इस जहाँ का हर नज़ारा था बहुत दिलकश अभी तक.
अब नहीं भाता मुझे ये रक्स बिलकुल भी चला मैं.

छू के गुजरी रूह को ठंडक दुआओं की हमेशा,
पांव छूने के लिये जब भी बुजुर्गों के झुका मैं.

धड़कनों नें धड़कनों को दिल कि सब बातें बता दीं.
आज बरसों बाद जब फिर मां के सीने से लगा मैं.