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कभी-कभी अचानक सोचता हूँ / प्रभात त्रिपाठी

कभी-कभी अचानक सोचता हूँ
कि सम्राट अशोक के शासन काल में
मेरा कोई न कोई पुरखा तो रहा होगा
 
बहुत सरल सीधा रिश्ता न भी हो
तो भी इसकी संभावना तो
तर्कसम्मत ही लगती है
कि मेरे दादा के दादा तो रहे ही होंगे
इस धरा धाम पर
और निश्चय ही उनकी वंशावली को भी
और पीछे खींचा ही जा सकता है

सहज बुद्धि कहती है
बाप के बाप के बाप के बाप का
यह सिलसिला चला जायेगा
आदि या अनादि काल तक

लेकिन इस बिंदु पर
मन में शुरू हो जाती है एक दूसरी बहस
जो विज्ञानं और भगवान की दृष्टियों से टकराती
यह सवाल हल करने में लग जाती है
कि पहले मुर्गी आई या अण्डा
या कि हम सब एककोशीय जीव से विकसित हुए
या फिर ईश्वर ने
सारे जीवों कीड़ों-मकोड़ों के साथ ही
बनाया है इन्सान को

इस फिजूल बहस से निकल कर
मैं इस कल्पना का सारांश करता हूँ
कि मेरा पुरातन आदिम पुरखा
या तो कीड़ा है
या ईश्वर

लेकिन आप ,बरखुरदार आप
किसे मानते हैं अपना पुरखा?
और क्या उसका
मेरे पुरखे से कोई रिश्ता है?