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गुज़रते हैं हम जिस गली जिस नगर से / पूजा श्रीवास्तव

गुज़रते हैं हम जिस गली जिस नगर से
कई होंगे तूफ़ान तारी उधर से
 
चलो बांध लें अब किनारे पे कश्ती
कहाँ तक लड़ेंगे ग़मों के भंवर से

न तुलसी न आँगन में है कोई दीपक
मेरा गांव आगे है अब तो शहर से

ये महताब मैं और तनहाई छत पर
तुम्हें याद करते रहे रात भर से

तुम्हारे लिए मेरा पल्लू है आफत
कहो बांध लूं ये मुसीबत कमर से

गुजरता है जब डाकिया बस मेरा दिल
बड़ा बैठा जाता है अंजान डर से

महकने लगी जाफ़रानी सी रातें
ये तकिया ये चादर रहे तरबतर से

है ईमानदारी न जाने कहाँ अब
मगर साथ मेरे ही निकली थी घर से

लिखो पीठ पर ऊँगलियों से इबारत
 तसल्ली नहीं मुझको आगोश भर से