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चिड़िया और समन्दर : सम्भावनाओं के नए क्षितिज / मुन्नी गुप्ता

 समन्दर कहता है
       रह तो सकती ही हो
तुम मेरे सामने जानता हूँ
       अपार सम्भावनाएँ खुली हैं
तुम्हारे सामने
जानता हूँ
तुम्हारे डैनों में पूरा आकाश भरा है
तुम नक्षत्रों की दुनिया तक जा सकती हो
 
मेरे भीतर रह पाना
तुम्हारे डैनों की प्रकृति के विरुद्ध है
चाहो भी तो तुम
नहीं उतर सकती मेरे भीतर ।
 
लेकिन बाहर रहकर
       इक आलाप की स्थिति में हम
                           आ सकते हैं
क्या यह बेहतर नहीं
       तुम तट पे रहकर समन्दर रचो
       और मैं तुम्हारे सामने आसमान रचूँ ।
हम दोनों,
       दो विपरीत ध्रुवों के सही
पर, क्या सम्भव नहीं कि आस-पास या
आमने-सामने की स्थिति बने ।
 
तुमने सच कहा — पूरा यथार्थ ।
“मैं आसमान नहीं बन सकता”
 
पर तुम्हें तो
दोनों जहाँ की नेआमतें हासिल हैं
 
अब तुम ही तय करो — यहाँ रहकर
समन्दर और आसमान के बीच
सम्भावनाओं के नये क्षितिज गढ़ों या
मेरे भीतर के समन्दर को काटकर
                 अपने जीवन का ‘सुन्दरतम’
पाठ रचो ।