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जब कोई अपना लगता है / ध्रुव गुप्त

जब कोई अपना लगता है
कैसा तो डर सा लगता है

अब वो ख़ुशी कहां होती है
वैसा ज़ख्म कहां लगता है

अपने क़द का तू भी होगा
दूर से ही ज़्यादा लगता है

हंसना अपना, रोना अपना
सब सोचा-समझा लगता है

वह भी है अपनी बस्ती का
कैसा तो ख़ुद सा लगता है

इश्क़ की कोई हद तो होगी
जितना हो, थोड़ा लगता है

दिन में भी सौ ख़्वाब देखना
इसमें क्या ख़र्चा लगता है