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तीन कविताएँ / माहेश्वर तिवारी

एक
 
हमारे सामने
एक झील है
       नदी बनती हुई

एक नदी है
महासागर की अगाधता की
खोल चढ़ाए हुए

एक समुद्र है
      द्विविधा के ज्वार-भाटों में
                 फँसा हुआ
  
हमें अपनी भूमिका का चयन करना है ।

दो
 
आया है जबसे
           यह सिरफिरा वसन्त
सारा वन
थरथर काँप रहा है
ऋतुराज भी शायद डरावना होता है
  
ऐसा ही होता होगा
               तानाशाह ।

तीन
 
नया राजा आया
जैसे वन में आते हैं नए पत्ते
                    और फूल

पियराये झरे पत्तों की
सड़ांध से निकलकर
सबने ख़ुश होकर बजाए ढोल, नगाड़े

अब वह ढोल और नगाड़े राजा के
पास हैं
जिनके सहारे वह
हमारी चीख़ और आवाज़ों से
बच रहा है ।