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तूलिका की लेके आड़ / अनुराधा पाण्डेय

तूलिका की लेके आड़, गले पड़े बार-बार, उसकी तो तय मानो, नियत में खोट है।
सर्जना की बात करे, सोचे किन्तु नैन लड़े, लौट-लौट करता जो, रूप को ही वोट है।
ऐसे जन चार दिन, दाना डाले गिन-गिन, फँसी नहीं चिड़ियाँ तो, उठती कचोट है।
ऐसे कामी ठौर-ठौर, रस ढूँढें बौर-बौर, कितनी भी मार खाएँ, लाज है न चोट है।