दरख़्त रोज़ शाम का बुरादा भर के शाखों में
पहाड़ी जंगलों के बाहर फेंक आते हैं !
मगर वो शाम...
फिर से लौट आती है, रात के अन्धेरे में
वो दिन उठा के पीठ पर
जिसे मैं जंगलों में आरियों से
शाख काट के गिरा के आया था !!
दरख़्त रोज़ शाम का बुरादा भर के शाखों में
पहाड़ी जंगलों के बाहर फेंक आते हैं !
मगर वो शाम...
फिर से लौट आती है, रात के अन्धेरे में
वो दिन उठा के पीठ पर
जिसे मैं जंगलों में आरियों से
शाख काट के गिरा के आया था !!