हैं भरम दिल का मोतबर रिश्ते
आज़माओ तो मुख्तसर रिश्ते
हो गए कितने दर-ब-दर रिश्ते
अपने ही खून में हैं तर रिश्ते
कल महकते थे घर के घर, लेकिन
बन गए आज दर्दे -सर रिश्ते
उनसे उम्मीद ही नहीं रक्खी
वरना रह जाते टूट कर रिश्ते
कम ही मिलते हैं इस ज़माने में
दर्द के, गम के, हमसफ़र रिश्ते
मैं इन्हें मरहमी समझता था
हैं नमक जैसे ज़ख्म पर रिश्ते
हैं ये तस्बीह के से दाने "ज़हीन"
बिखरे-बिखरे से हैं मगर रिश्ते