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'माया'श्रृंखला-७ /रमा द्विवेदी
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१-माया के द्वारा ही तो,
योग्य वर पा जाती हैं।
माया के कारण ही तो,
धूं-धूं कर जल जाती हैं॥
२-बाप की पगड़ी के खातिर,
कितने-कितने गरल पी लेती है?
खून पी-पीकर खुद का ही वह,
लाश बनकर जी लेती है॥
३-शिव ने पिया था इक बार विष,
'नीलकंठ' बन विभूषित हुए।
बदन पर सहस्त्रों नील है जिसके,
अनदेखे-अगणित ही रह गए॥
४-तन की क्या बात करें जब,
धड़कनें तक लुट जाती हैं।
अहसासों की कुछ बात करें गर,
अर्थियां उठ जाती हैं॥
५- कितनी हैं वे खुशनसीब,
जिनको मिल जाता है क़फ़न?
बेटियां ऐसी भी हैं कुछ?
ज़िन्दा हो जाती हैं दफ़न॥