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'हे राम' - खचित यह वही चौतरा, भाई / हरिवंशराय बच्चन

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'हे राम' - खचित यह वही चौतरा, भाई,

जिस पर बापू पर ने अंतिम सेज डसाई,

जिस पर लपटों के साथ लिपट वे सोए,

गलती की हमने

जो वह आग बुझाई।


पारसी अग्नि जो फारस से लाए,

हैं आज तलक वे उसे ज्‍वलंत बनाए,

जो आग चिता पर बापू के जगी थी

था उचित उसे

हम रहते सदा जगाए।


है हमको उनकी यादगार बनवानी,

सैकड़ों सुझाव देंगे पंडित-ज्ञानी,

लेकिन यदि हम वह ज्‍वाल लगाए रहते,

होती उनकी

सबसे उपयुक्‍त

निशानी।


तम के समक्ष वे ज्‍योति एक अविचल थे,

आँधी-पानी में पड़कर अडिग-अटल थे,

तप के ज्‍वाला के अंदर पल-पल जल-जल

वे स्‍वयं अग्नि-से

अकलुष थे,

निर्मल थे।


वह ज्‍वाला हमको उनकी याद दिलाती,

वह ज्‍वाला हमको उनका पथ दिखलाती,

वह ज्‍वाला भारत के घर-घर में जाती,

संदेश अग्निमय

जन-जन को

पहुँचाती।


पुश्‍तहापुश्‍त यह आग देखने आतीं,

इससे अतीत की सुधियाँ सजग बनातीं,

भारत के अमर तपस्‍वी की इस धूनी

से ले भभूत

अपने सिर-माथ

चढ़ातीं।


पर नहीं आग की बाकी यहाँ निशानी,

प्रह्लाद-होलिका फिर घटी कहानी,

बापू ज्‍वाला से निकल अछूते आए,

मिल गई राख-

मिट्टी में चिता

भवानी।


अब तक दुहरातीं मस्जिद की मिलारें,

अब तक दुहरात‍ीं घर घर की दीवारें,

दुहराती पेड़ों की हर तरु कतारें,

दुहराते दरिया के जल-कूल-कगारे,

चप्‍पे-चप्‍पे इस राजघाट के रटते

जो लोग यहाँ थे चिता-शाम के नारे-

हो गए आज बापू अमर हमारे,

हो गए आज बापू अमर हमारे!_